Long long ago, there was a terrible and powerful demon called Mahishasura (Buffalo Demon). He was able to transform his form, being sometimes a human, sometimes a water buffalo. By performing extraordinary austerities, he accrued great power, so great that even the Gods could not defeat him. He was invincible to all males. He drove all the Gods out of heaven and terrorised the three worlds, those of the Gods, the demons and the men. The Gods consulted with each other and decided to offer all their individual powers, their energies, back to the one Source. As they did that, the Source materialized in front of their eyes into Maha Devi, the Great Goddess, the Mother of all beings divine and mortal. She took the form of Durga, seated on Her lion mount. The Gods gave Her their own weapons such as Shiva his trident, Vishnu his mace, and Kartikeya his sword. She battled Mahishasura for nine days and nine nights, finally killing him and restoring order in the three worlds. So She was given the name Mahishasura Mardini (The Slayer of Mahishasura).
This story is from देवीमाहात्म्यम् (Devi Mahatmyam), written in the 4th or 5th century by sage Markandeya. Written in Sanskrit the text attempts to bring together the Mother Goddess cult from pre-Aryan and Aryan times. This is the most important text for the Shaktas, the followers of Shakti, the divine Mother.
Today is first day of Navaratri, the festival of nine days and nine nights when we celebrate the Great Goddess. To celebrate, I will dedicate the first three days to the forms of Shakti, the Goddess of Power, the next three days to Lakshmi, the Goddess of Wealth and the last three days to Saraswati, the Goddess of Knowledge. This is how Navaratri is celebrated in my part of India.
To celebrate Shakti, what better way than to listen to Adi Shankaracharya’s (780-820 CE) incomparable sloka on Mahishasura Mardini (see footnote for lyrics). I learnt to read and recite it as a child and even now the cadence, the rhythm and the flow of the words give me great pleasure. To present this, here is a dance performance of some of the verses. To listen to the complete slokam to sing along with on this auspicious day, click here.
Lyrics
अयि गिरिनंदिनि नंदितमेदिनि विश्वविनोदिनि नंदनुते
गिरिवर विंध्य शिरोधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुंबिनि भूरि कुटुंबिनि भूरि कृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते ।
दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २॥
अयि जगदंब मदंब कदंब वनप्रिय वासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्ग हिमालय शृंग निजालय मध्यगते ।
मधु मधुरे मधु कैटभ गंजिनि कैटभ भंजिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३॥
अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते
रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते ।
निज भुज दण्ड निपातित खण्ड विपातित मुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४॥
अयि रण दुर्मद शत्रु वधोदित दुर्धर निर्जर शक्तिभृते
चतुर विचार धुरीण महाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति दानवदूत कृतांतमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५॥
अयि शरणागत वैरि वधूवर वीर वराभय दायकरे
त्रिभुवन मस्तक शूल विरोधि शिरोधि कृतामल शूलकरे ।
दुमिदुमि तामर दुंदुभिनाद महो मुखरीकृत तिग्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६॥
अयि निज हुंकृति मात्र निराकृत धूम्र विलोचन धूम्र शते
समर विशोषित शोणित बीज समुद्भव शोणित बीज लते ।
शिव शिव शुंभ निशुंभ महाहव तर्पित भूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७॥
धनुरनु संग रणक्षणसंग परिस्फुर दंग नटत्कटके
कनक पिशंग पृषत्क निषंग रसद्भट शृंग हतावटुके ।
कृत चतुरङ्ग बलक्षिति रङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८॥
जय जय जप्य जयेजय शब्द परस्तुति तत्पर विश्वनुते
झण झण झिञ्जिमि झिंकृत नूपुर सिंजित मोहित भूतपते ।
नटित नटार्ध नटीनट नायक नाटित नाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९॥
अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहर कांतियुते
श्रित रजनी रजनी रजनी रजनी रजनीकर वक्त्रवृते ।
सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १०॥
सहित महाहव मल्लम तल्लिक मल्लित रल्लक मल्लरते
विरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक झिल्लिक भिल्लिक वर्ग वृते ।
सितकृत पुल्लिसमुल्ल सितारुण तल्लज पल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११॥
अविरल गण्ड गलन्मद मेदुर मत्त मतङ्गज राजपते
त्रिभुवन भूषण भूत कलानिधि रूप पयोनिधि राजसुते ।
अयि सुद तीजन लालसमानस मोहन मन्मथ राजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १२॥
कमल दलामल कोमल कांति कलाकलितामल भाललते
सकल विलास कलानिलयक्रम केलि चलत्कल हंस कुले ।
अलिकुल सङ्कुल कुवलय मण्डल मौलिमिलद्भकुलालि कुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३॥
कर मुरली रव वीजित कूजित लज्जित कोकिल मञ्जुमते
मिलित पुलिन्द मनोहर गुञ्जित रंजितशैल निकुञ्जगते ।
निजगुण भूत महाशबरीगण सद्गुण संभृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १४॥
कटितट पीत दुकूल विचित्र मयूखतिरस्कृत चंद्र रुचे
प्रणत सुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुल सन्नख चंद्र रुचे ।
जित कनकाचल मौलिपदोर्जित निर्भर कुंजर कुंभकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५॥
विजित सहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते
कृत सुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते ।
सुरथ समाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं स शिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परंपदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७॥
कनकलसत्कल सिन्धु जलैरनु सिञ्चिनुते गुण रङ्गभुवं
भजति स किं न शचीकुच कुंभ तटी परिरंभ सुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवं
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८॥
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूत पुरीन्दुमुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९॥
अयि मयि दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथाऽनुमितासिरते ।
यदुचितमत्र भवत्युररि कुरुतादुरुतापमपाकुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २०॥
॥ इति श्रीमहिषासुरमर्दिनि स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
Transliteration and translation is available here.
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